सावन का महीना न केवल बारिश और हरियाली का मौसम है, बल्कि यह प्रकृति, प्रेम और स्त्री मन के उल्लास का उत्सव भी है। इस ऋतु में जहां पेड़-पौधे नाचने लगते हैं, वहीं स्त्रियों का मन भी उल्लास और भावनाओं से भर जाता है। इसी भावनात्मक और सांस्कृतिक संगम से जुड़ी है झूले की परंपरा, जो सदियों से चली आ रही है।
कैसे शुरू हुई परंपरा?
प्राचीन लोककथाओं और परंपराओं के अनुसार, झूले की शुरुआत ऋतु परिवर्तन के साथ हुई थी। जब पेड़ हरे-भरे हो जाते हैं और हवा में ठंडक घुल जाती है, तब झूला न केवल एक खेल या मनोरंजन का साधन होता है, बल्कि यह प्रेम, विरह और आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाता है।
झूले और स्त्री मन:
लोकगायिका मालिनी अवस्थी के अनुसार, झूला सावन में नारी मन के पंखों को खोलने का प्रतीक है। यह वह समय होता है जब स्त्रियां गीतों के माध्यम से अपने प्रेम, पीड़ा और चाह को प्रकृति से साझा करती हैं।
विशेषकर विवाहित महिलाएं, जो मायके आती हैं, वह झूले पर झूलते हुए अपने बचपन, प्रेम और विरह के भाव को गीतों में पिरोती हैं।
लोक संस्कृति में झूले:
- झूला गीतों का खास स्थान
- लोकनृत्य और झूले का संगम
- राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीकात्मक झूला
- त्योहारों जैसे हरियाली तीज और सावन सोमवार पर झूले का आयोजन
झूले सिर्फ एक झूले नहीं हैं, वे एक ऐसा संवेदनात्मक मंच हैं, जहां प्रकृति और स्त्री मन एक साथ झूमते हैं।